चोटी की पकड़–24
नसीम आँखें फाड़कर देखने लगी।
"दोस्त और दुश्मन सबके होते हैं। सरकार तहकीकात कर रही है। वक्त पर दूध और पानी अलग कर देगी।"
नसीम ने ललित स्वर से कहा, "क्या ही अच्छा हो कि इसके पूरे भेद से हम भी वाकिफ हो जाएँ।"
"यह हमारे हाथ की बात नहीं। खुद हम इसके भेद से वाकिफ नहीं। पर एक सूरत हम ऐसी बताएँगे कि शिकायत भी रफा हो जाएगी और सरकार के मददगार दोस्तों में नाम दर्ज हो जाएगा।"
"मेहरबानी।" नसीम ने विजयी स्वर से कहा।
"मैं मुसलमान हूँ। दूसरी शिरकत मजहबी है।"
नसीम गंभीर हो गई। कुर्सी पर हाथ समेटकर बैठी।
"आजकल जमींदारों और कुछ हिंदुओं ने सरकार के खिलाफ गुटबंदी की है।
जिस ज़मींदार से आपके तअल्लुकात हैं, इस पर सरकार को शुन्हा है।
इसका भेद मालूम होना चाहिए। इससे सरकार की मदद भी होगी और कौम की खिदमत भी।
सरकार की मदद इस तरह कि आपके जरिये दुश्मन का राज सरकार को मिलेगा और कौम की खिदमत इस तरह कि सुदेशी का बवेला जो हिंदुओं ने मचा रखा है, यह जड़ से उखड़ जाएगा।
मुसलमान रैयत को फायदे के बदले नुकसान है अगर हिंदुओं को कामियाबी हुई। सरकार ने बंगाल के दो हिस्से इस उसूल से किए हैं
कि मुसलमान रयत को तकलीफ़ है; मौरूसी बंदोबस्त वाली 99 हर सदी जमीनों पर हिंदुओं का दखल है;
यह आगे चलकर न रहेगा। इससे मुसलमानों की रोटियों का सवाल हल होता है।
आपके दोस्ताने के बर्ताव से दुश्मनों की की हुई शिकायत का असर जाता रहेगा, उल्टे फायदा उठाइएगा।"
"आपकी सलाह नेक।" नसीम ने दोस्ती की आवाज में कहा।
"आदाब अर्ज।" थानेदार साहब उठकर खड़े हो गए, "अब मैं चलता हूँ। सीन याद रखिएगा।
जो शख्स कहे, उसे अपना आदमी समझिएगा। उसे और कोई राज न दीजिए। सिर्फ कहिए, 'फँस गया' या 'नहीं फँसा।'
पूरी बातें मैं ही मालूम करूँगा। मैं तीन और तीन कहूँगा। आप वाकिफ हाल हैं।
सहूलियत से काम लेना है। हमारे आप लोगों से गहरे तअल्लुकात रहते हैं।"
"पान-सिगरेट शौक फर्माते हैं?" थानेदार साहब चल पड़े थे, खड़े हो गए।
नसीम ने सोने के पानदान से निकालकर पान दिए और डिब्बे से सिगरेट। सामने दियासलाई जलायी। थानेदार साहब ने आँखें भरकर देखा। दियासलाई के गुल होते जैसे दिल में अँधेरा छा गया।